"चौदह फेरे" शिवानी द्वारा
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शिवानी की लेखन विधि में उपन्यास को मैं उनका श्रेष्ठतम कौशल कहूँगी। इस विधा की शिवानी कृतियां मुझे सबसे प्रिय हैं। इसलिए अपना वार्षिक किताबी लक्ष्य ख़तम करके "लैज़र रीडिंग" हित मैंने अनायास ही शिवानी जी के दो उपन्यास उठा लिए| इस साल गल्प अधिक पढ़ लेने के कारण मेरी अगली कोशिश होगी कुछ नॉन-फिक्शन पढ़ने की।
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बहरहाल, "चौदह फेरे" की बात करते हुए बताना चाहूंगी कि यह कृति पहले-पहल उपन्यास रूप में प्रकाशित न होकर 'धर्मयुग' साप्ताहिक पत्रिका में लड़ीवार रूप में छपी थी। किताब के शुरू में मृणाल पण्डे द्वारा दिए परिचय ज़ाहिर करता है कि यह श्रृंखला उस समय के पाठकगणों में इतनी लोकप्रिय हो गई कि कहानी की नायिका अहल्या के भविष्य को लेकर अक्सर ही कॉलेज छात्राओं और गृहिणियों द्वारा अनुमान और कयास लगाए जाते थे। लेखनी में लोकतंत्र के एक अनूठे प्रदर्शन की मिसाल यह है की मृणाल द्वारा शिवानी जी को पाठकों की इच्छा से मुखातिब करवाते हुए उन्ही ने कहानी को दुखांत के बदले सुखांत से संपन्न करने का विनय किया था, जो (स्पॉइलर अलर्ट!) लेखिका ने माना भी और लिखा भी।
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चौदह फेरे कहानी शुरू होती है एक निपट पहाड़ी परिवेश से निकले शिबुआ उर्फ़ शिवदत्त से, जो अल्मोड़ा के एक छोटे से गांव से निकल बंगाल में एक प्रसिद्ध और संपन्न व्यवसायी बनने में सफल रहते हैं। इन्ही की चंचल, संवेदनशील और कुछ लाड़ली सुपुत्री अहल्या कहानी की नायिका हैं। कलकत्ता के बंगले का ऐश्वर्य, पहाड़ी पैतृक गाँव का ठेठ एवं साधारण वातावरण, चचेरी बहन बसंती की तिब्बती नानी का आलीशान घर, बंगलूर का कॉन्वेंट, दिल्ली का छितरा हुआ सा सफ़र - अलग अलग सेट-अप कहानी को कदम कदम पर नवीन और विलक्षण बनाये रखते हैं| इसी के साथ कहानी के पात्र बड़े रुचिपूर्ण ढंग से बयां किये गए हैं - गांव की अनुरागमयी बहन बसंती हो या नए चुहलबाज़ जीजा धरणीधर, "ए सूटेबल बॉय" की तर्ज पर नायिका को मोहते राजू, सर्वेश्वर, रैक्सी और रौनेन, नायिका की परित्यक्ता माँ नंदिनी और मिसिज़ मलिका, नौटंकी पर मनोरंजक पहाड़ी ताई आदि - उपन्यास बस दिलचस्प किरदारों से अटा पड़ा है। इतने मनोरंजक के हफ़्तों बाद इस उपन्यास-समीक्षा को लिखते हुए मेरा दोबारा इसे पढ़ने का मन हो आया!
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कभी तनावमुक्त पठन-पाठन का मन हो तो अवश्य इसे चुनें। आप गिला नहीं करेंगे।
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बांधकर रखने वाले इस विविधता से भरे उपन्यास को मैं दूंगी 5/5 🌟
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