(16 of 2021)
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'स्वयंसिद्धा' शिवानी द्वारा
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राधाकृष्ण पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित 'स्वयंसिद्धा' 6 लघुकथाओं - स्वयंसिद्धा, अभिनय, कौन, गैंडा, बदला और दर्पण - का संग्रह है. यह किताब शिवानी द्वारा कृत शृंखला की इस साल की मेरी पांचवीं किताब है. ज़ाहिर है, इतने ओवर-एक्सपोज़र से एक समय पर मन भरने या मोहभंग जैसी स्थिति बनने लगती है. कहीं-कहीं शिवानी जी की रूढ़िवादी सोच ने भी आहत किया है. परंतु इस किताब ने मुझे फिर स्मरण करवा दिया - कि मैं ने क्यूं शिवानी जी को पढ़ना शुरू किया था.
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ना इस किताब में आपको 'कस्तूरी मृग' में वर्णित पहाड़ और वनस्पतियां मिलेंगी, और ना ही 'भैरवी' जैसा भारतीय आध्यात्म का मंगलगान. सारी कहानियां बड़ी तरोताज़ा और नवीन हैं - मॉडर्न भी कह सकते हैं.
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जहां 'स्वयंसिद्धा' एक विख्यात अविवाहित प्रौढ़ा प्रशासनिक अधिकारी माधवी की कहानी है, वहीं 'अभिनय' दिलफेंक शेखर और भोली जिवंती का प्रेमप्रसंग.
'कौन' कुछ ऐसे बेनाम रिश्तों की बात कहती है जिन्हें सामाजिक स्वीकृति ना मिलने पर भी वह प्रासंगिक और प्रिय रहते हैं, चाहे समय आने पर हमारे वे साथी हमारे 'कौन' हैं, यह बता पाना असंभव ही हो.
'गैंडा' दो दांतकाट सखियों सुपर्णा और राज की गलाकाट जीवनपर्यंत प्रतिस्पर्धा की अनोखी कहानी है. चाहे प्लॉट वही घिसा-पिटा हो पर लेखिका ने इसे बड़े नए ढंग से लिखा है. शृंखला की यह मेरी सबसे मनपसंद कृति है.
'बदला' को पिता-पुत्री के द्वंद्व की दास्तान कहना ठीक होगा और 'दर्पण' दर्पणों को शौकीन दंभी सुन्दरी कामिनी की कहानी है. अंत काफी हृदयविदारक है.
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कुल मिलाकर सभी कहानियाँ अपनी छाप छोड़ने वाली हैं और बार-बार पढ़ने पर भी पुरानी नहीं पड़तीं.
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शिवानी-अनुराग की पटरी-वापसी पर इस संग्रह को मैं दूंगी 4.5/5
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